कम्पन
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अट्ठारह सितम्बर दो हज़ार ग्यारह,
समय संध्या छः बजकर बारह,
तीस सेकंड का वह अनुभव भयावह |
धरा की हल्की सी हरकत,
व्याप्त हुआ सब ओर दहशत |
धरती ने दिखाया अपना क्रोध,
अब क्यों बन रहा अबोध ?
बैठकर तू कर चिंतन,
क्यों हो रहा रह रह के कम्पन !
कहीं यह तेरी ही तो नहीं ख़ता?
जिसकी अब मिल रही सज़ा !
फिर देख कर ऐसा ज़लज़ला,
साँसें थाम,सहम जाता है सदा |
फिर भी करता रहता मनमानी,
जब चाहा,की छेड़खानी |
सिलसिला ऐसा ही रहा यदि,
फिर तो बचने की कोई राह नहीं |
नाराज़ हो रही प्रकृति,
ऐसे ही नहीं कांप रही धरती !
या तो बदल रवैया अपना,
या झेल प्रकोप प्रकृति का |
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very well said aunty.........
ReplyDeletethanx manjari.
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